BA Semester-2 Ancient Indian History and Culture - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2723
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- प्रयाग प्रशस्ति के आधार पर समुद्रगुप्त की विजयों का उल्लेख कीजिए।

अथवा
समुद्रगुप्त की दक्षिणी भारत की विजयों का वर्णन कीजिए।
अथवा
समुद्रगुप्त की उत्तरी- दक्षिणी भारत की विजयों का वर्णन कीजिए।
अथवा
दक्षिण विजय में समुद्रगुप्त की नीति का वर्णन कीजिए।
अथवा
गुप्त राजवंश के समुद्रगुप्त के आर्यावर्त की विजय का उल्लेख कीजिए।
अथवा
समुद्रगुप्त की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
समुद्रगुप्त के आर्यावर्त / उत्तरापथ अभियान के विषय में आप क्या जानते हैं?
अथवा
समुद्रगुप्त के अभियान की चर्चा कीजिए और समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान का उल्लेख कीजिए।
अथवा
समुद्रगुप्त के आर्यावर्त अभियान का विवरण दीजिए।
अथवा
समुद्रगुप्त के जीवन तथा उसके दक्षिणापथ अभियान का उल्लेख कीजिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. समुद्रगुप्त का काल निर्णय बताइए।
2. समुद्रगुप्त की दिग्विजय का वर्णन कीजिए।
3. पूर्व के प्रत्यन्त राज्यों का वर्णन कीजिए।
4. पश्चिम राज्य का वर्णन कीजिए।
5. समुद्रगुप्त की उपलब्धियों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
6. समुद्रगुप्त की दक्षिणापथ विजय पर प्रकाश डालिए।
7. प्रयाग प्रशस्ति के विषय में बताइए।
8. प्रयाग प्रशस्ति के विषय में आप क्या जानते हैं?
9. समुद्रगुप्त के उत्तरापथ अभियान के राजाओं का उल्लेख कीजिए।
10. प्रयाग प्रशस्ति से किस राजा के जीवन तथा व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है।

उत्तर-

समुद्रगुप्त

चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त मगध की गद्दी पर बैठा। समुद्रगुप्त चन्द्रगुप्त के अनेक बेटों में से एक था। जैसाकि पूर्व वृतान्तों से ज्ञात होता है कि उसे उसके पिता ने भरी सभा में अपना उत्तराधिकारी शासक मनोनीत किया था, किन्तु आरम्भ में उसे अपने भाइयों के विद्रोह का, जिसका नेतृत्व सम्भवतः काच ने किया था, सामना करना पड़ा था। अपने विद्रोही भाई काच को परास्त कर चुकने के बाद समुद्रगुप्त ने तत्कालीन उत्तर भारत में बिखरे हुए छोटे-छोटे राज्यों को जीतकर अपनी शक्ति सुदृढ़ करने की ओर ध्यान दिया और भारत में राजनीतिक एकता स्थापित कर एकराष्ट्र बनाने का प्रयत्न किया। विजय अभियान की उसने जो विशाल योजना बनायी थी उसका विशद उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति में प्राप्त होता है।

प्रयाग प्रशस्ति के रचनाकार - प्रयाग प्रशस्ति ( लौहरसभा) पर उत्कीर्ण प्रशस्ति को महादण्डनायक ध्रुभूति के पुत्र महाकवि हरिवेण ने रचा था। वह स्वयं महामात्य था और खाद्यतपादिक सन्धिविग्राहक, महादण्डनायक के पदों पर आसीन था। सम्भवतः वह राजा के साथ विजय अभियान में गया था। इस प्रकार तत्कालीन घटनाओं से उसका निकट का परिचय था। उसने न केवल सामान्य ढंग से शत समर में सम्राट की योग्यता का, जिसके कारण उसके शरीर में घावों के निशान थे, सामान्य रूप से उल्लेख किया है वरन् एक-एक शत्रु का भी नामोल्लेख भी किया है जिनसे उन्हें लड़ना पड़ा था। उसके इस लेख को इतिहास के प्रामाणिक साधन के रूप में ग्रहण किया और उसके विवरण को सत्य कहा जा सकता है।

यह अभिलेख प्रयाग (इलाहाबाद) के कौशाम्बी के लौह स्तम्भ पर उत्कीर्ण किया गया है। कौशाम्बी के बाद में इसे इलाहाबाद के किले में गाड़ दिया गया था। इसी स्तम्भ के दूसरी ओर सम्राट अशोक का शान्ति सन्देश भी उत्कीर्ण है। फ्लीट महोदय ने इसे समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् लिखा गया माना है। परन्तु इस अभिलेख में समुद्रगुप्त द्वारा सम्पादित अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं है जब कि अन्य अभिलेखों तथा मुद्राओं पर अश्वमेध का उल्लेख हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस अभिलेख की रचना समुद्रगुप्त के दक्षिण विजय से लौटने तथा अश्वमेध यज्ञ करने से पहले हुई थी।

प्रयाग प्रशस्ति - प्रयाग प्रशस्ति का प्रथम भाग पद्य में है तथा इसमें आठ श्लोकहैं। इससे पहले के दो श्लोक नष्ट हो गये हैं। फिर भी उनसे पता चलता है कि समुद्रगुप्त एक योग्य विद्वान, शास्त्रों का ज्ञाता तथा विद्वानों की की संगति में में रहने वाला विद्वान और संगीतशास्त्र का ज्ञाता था। चौथे श्लोक में उसके उत्तराधिकारी मनोनीत किये जाने पर कुछ व्यक्तियों के ईर्ष्यावश चेहरे पीले पड़ गये थे- का उल्लेख है। सातवें तथा आठवें श्लोक में समुद्रगुप्त के विजय अभियान का वर्णन है, 13वीं पंक्ति में उत्तरी भारत के तीन राज्यों को परास्त करने का उल्लेख है। 19वीं तथा 20वीं पंक्ति में समुद्रगुप्त की दक्षिणी विजय का उल्लेख है। 21वीं तथा 13वीं पंक्ति में राजाओं के समर्पण का उल्लेख है। 23वीं, 24वीं पंक्ति में उन अनेक विदेशी शासकों के नाम हैं जिन्होंने समुद्रगुप्त को उपहार आदि दिये।

उत्तराधिकार का निर्णय - समुद्रगुप्त के राज्यारोहण के सम्बन्ध में प्रयाग प्रशस्ति से बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है। प्रशस्ति की चौथी पंक्ति समुद्रगुप्त प्रथम के दरबार के दृश्य का वर्णन करती है। प्रयाग प्रशस्ति से ऐसा आभास होता है कि चन्द्रगुप्त ने खुले दरबार में समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी चुना। इस प्रकार की आवश्यकता सम्भवतः इस कारण से हुई कि चन्द्रगुप्त के अन्य पुत्र रहे होंगे और उनमें परस्पर युद्ध की सम्भावना को समाप्त करने के विचार से चन्द्रगुप्त ने समुद्रगुप्त को युवराज चुना, दूसरे समुद्रगुप्त के दरबार में उत्तराधिकारी चुना जाना इस बात की ओर संकेत करता है कि प्राचीन गणराज्य परम्परा में राजा का चुनाव होता था। इस प्रशस्ति की सातवीं पंक्ति में यह बतलाया गया है कि -

आर्यो हीत्युपगुह्य भाव विशुनैः उत्कीणिति रोमभिः।
सभ्येष्वच्छवषु तुल्य कुलजग्लान नोद्बोक्षित ||
स्नेहव्याकुलितेन वाष्पगुरुणा तत्वेक्षिणा चक्षुषा।
यः पिता भिहतो निरीक्ष्य निखिलां पाह्येव मूर्वीमिति।

समुद्रगुप्त के समान पद वाले राजकुमारों के मुख म्लान हो गये और उसके विपरीत सभासद हर्ष से उद्दवसित हो रहे थे। डा. अल्तेकर का कथन है कि प्राचीन भारत में उत्तराधिकार के नियमों के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र के स्थान पर किसी दूसरे को चुना जाता था। चन्द्रगुप्त को यह आभास हो गया होगा कि दरबार में कुछ व्यक्ति समुद्रगुप्त के विरोधी भी हो सकते हैं क्योंकि वह ज्येष्ठ पुत्र नहीं था। इसके साथ ही सम्भवतः उसे यह भी डर था कि समुद्रगुप्त लिच्छवि राजकुमारी का पुत्र था जोकि ब्राह्मण ग्रन्थों के नियम के अनुसार व्रात्य क्षत्रिय थे। यह व्रात्य क्षत्रिय बौद्ध तथा जैन जैसे विरोधी मतों को मानने वाले थे। इस प्रकार समुद्रगुप्त के चुने जाने पर ब्राह्मण मतावलम्बियों के स्वाभाविक विरोधी होने की सम्भावना थी।

डा. मजूमदार प्रयाग प्रशस्ति से सम्भवतः यह भी निष्कर्ष निकालते हैं कि समुद्रगुप्त ने उत्तराधिकार के निर्णय के पश्चात् सिंहासन भी त्याग दिया। इस समुद्रगुप्त की अवस्था अवश्य ही परिपक्व थी और वह राज्यभार सम्भालने योग्य थी। इस प्रकार शान्तिपूर्वक शक्ति हस्तान्तरण भी सम्पन्न हो सका।

समुद्रगुप्त का काल निर्णय - समुद्रगुप्त के सिंहासनारोहण की तिथि के विषय में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। कृत्रिम नालन्दा पत्र के अनुसार समुद्रगुप्त ने 325 ई. के पहले राज्य पद प्राप्त " किया। कुछ विद्वान समुद्रगुप्त को गुप्त सम्वत् का संस्थापक मानते हैं। इसलिए वे उसकी तिथि 320 ई: निर्धारित करते हैं। डा. आर. सी. मजूमदार उसकी तिथि 140 से 320 ई. निर्धारित करते हैं। डा. वी. एन. स्मिथ 320 ई. से 375 ई. के बीच उसका समय निर्धारित करते है। डा. आर. के. मुकर्जी उसकी तिथि 335 ई. मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि-

"His region is reoughly taken to begin from 335 A. D. rest is becomes too long, its length also depends on his age, the date of his birth may be taken to become to the throne at 25, the legal age of kingship in 335 A.D. '

नालन्दा और गया के तिथियुक्त दानपत्र शायद गुप्त सम्वत् के पंचवें तथा नवें वर्ष अंकित किये गये थे। इस आधार पर समुद्रगुप्त का शासन प्रबन्ध 324-25 ई. से आरम्भ हुआ माना जाना चाहिए। चन्द्रगुप्त द्वितीय की मथुरा प्रशस्ति उसकी प्रारम्भिक प्रशस्ति है। उसका समय गुप्त सम्वत् के 16वें वर्ष माना जाता हैं। इसलिए समुद्रगुप्त का शासनकाल ( 319 +61 ) 380 ई. तक अवश्य ही समाप्त हो गया होगा।

समुद्रगुप्त की दिग्विजय - उत्तराधिकार युद्ध से निवृत होकर समुद्रगुप्त ने अपनी शक्ति का संगठन किया और दिग्विजय का बीड़ा उठाया। उसने उत्तरी तथा दक्षिणी भारत के राजाओं को पराजित करके अपनी सार्वभौम सत्ता की स्थापना की, जो नरेश शेष रह गये उन्होंने उसके पराक्रम से आतंकित होकर या तो अपनी अधीनता स्वीकार कर ली या उसके साथ मित्रता कर ली। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में हरिवेण द्वारा सम्पूर्ण दिग्विजय का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। प्रयाग प्रशस्ति में उसकी विजय नीति का स्पष्ट उल्लेख किया गया है जो निम्न प्रकार समझा जा सकता है-

1. राज्यग्रहण मोक्षानुग्रह - इससे तात्पर्य यह है कि राज्यों को जीतकर उनको मुक्त करके अनुग्रहीत किया अर्थात् वहाँ पुराने शासकों को ही राज्य लौटा दिया गया। इस विशिष्ट नीति का पालन दक्षिणापथ राज्यों के लिए किया गया।

2. राज्य प्रसमाद्दकरण - इसका तात्पर्य यह है कि समुद्रगुप्त ने नये राज्यों को जीतकर बलपूर्वक अपने राज्य में मिला लिया, यह नीति आर्यावर्त के राज्यों के लिए प्रयोग में लायी गयी।

3. प्रचारकृत् - इसका अर्थ है कि सेवक बनाना। यह नीति मध्य भारत के आटविक राज्यों के साथ अपनाई गयी थी।

4. करदानाज्ञाकरण प्राणामागमन - इसका अर्थ है कर एवं दान देना और आज्ञा का पालन करना तथा सम्राट के अभिवादन हेतु आना। यह नीति सीमा स्थित राजाओं तथा गणराज्यों के प्रति अपनायी गयी थी।

5. भ्रष्ट राज्योत्सन्न राजवंश प्रतिष्ठा - हारे हुए राज्यों को पुनः प्रतिष्ठापित करने की नीति का प्रयोग भी दक्षिणापथ पर किया गया है।

6. आत्म-निवेदन कन्योपायनदान गरुड़ मद अक स्व विषयमुक्ति शासन - इसका अर्थ है कि कुछ राजाओं ने आत्मसमर्पण किया। कन्याओं का विदाह तथा अपने विषय तथा मुक्ति में (जिला व प्रान्त) शासन के निमित्त गरुड़ की मुद्रा में अंकित (गुप्तवंशीय चिन्ह) आज्ञापत्र की याचना की। इस नीति का पालन विदेशी राजाओं के साथ किया था।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि समुद्रगुप्त ने दूरस्थ देशों के राजाओं के साथ जिस नीति का अनुशीलन किया वह उसकी बुद्धिमत्ता एवं कूटनीति का परिचायक थी।

समुद्रगुप्त की उत्तरापथ विजय अथवा आर्यावर्त विजय अभियान - समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजय की प्रक्रिया में उत्तर भारत में दो बार युद्ध किये। इन युद्धों को क्रमशः आर्यावर्त का 'प्रथम' तथा 'द्वितीय' युद्ध कहा जाता है। इनका उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति में मिलता है। समुद्रगुप्त ने उत्तरापथ के राजाओं का विनाश कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। प्रयाग प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में आर्यावर्त के नौ राजाओं का उल्लेख हुआ है जिनका विवरण निम्नवत् है-

1. रुद्रदेव - इस राजा को अब तक समस्त इतिहासकार रुद्रसेन (प्रथम) समझते रहे हैं अथवा उसके प्रति अपनी अनभिज्ञता के भाव ही व्यक्त करते रहे हैं। इधर हाल में दिनेश चन्द्र सरकार ने यह मत प्रतिपादित किया है कि रुद्रदेव की पहचान पश्चिमी क्षत्रप रुद्रदामन (द्वितीय) अथवा उसके पुत्र रुद्रसेन (तृतीय) से की जानी चाहिए, किन्तु जैसाकि ऊपर इंगित किया जा चुका है कि वाकाटक रुद्रसेन (प्रथम) दक्षिण का राजा था। कौशाम्बी से रुद्रदेव की कुछ मुद्रायें प्राप्त हुई हैं जिससे ज्ञात होता है कि रुद्रदेव वाकाटक नरेश रुद्रसेन प्रथम है। परन्तु रुद्रदेव जो भी रहा हो यह सत्य है कि वह आर्यावर्त का शासक था तथा समुद्रगुप्त ने इसे पराजित किया था।

2. मतिल - फ्लीट और ग्राउस का कहना है कि बुलन्दशहर से प्राप्त मिट्टी की मुहर पर जो मतिल नाम है, वही यह मतिल है। उनके इस कथन को सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है किन्तु यह पहचान काफी संदिग्ध है। एलन ने उचित रूप से इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि इस मुहर में कोई उपाधि नहीं है जिससे कहा जाय कि उसका स्वामी किसी रूप में सत्ताधारी था। उपाधि के अभाव में तो यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वह कोई छोटा-मोटा राजा रहा होगा। सम्प्रति मतिल और उसके प्रदेश के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती।

3. नागदत्त - मथुरा के निकट बहुत-सी ऐसी मुद्राएं प्राप्त हुई हैं जिनमें उत्कीर्ण नामों के अन्त में 'दत्त' शब्द आया है। नागदत्त के नाम के अन्त में भी दत्त होने के कारण बहुत कुछ सम्भव है कि नागदत्त मथुरा के आसपास ही कहीं राज्य करता होगा। परन्तु दत्त वंश के साथ उसका क्या सम्बन्ध था इसका कुछ भी ज्ञान नहीं हुआ। डा. जायसवाल इसे ई. 328-349 के लगभग नागवंश का शासक मानते हैं। राजा महाराजा महेश्वर नाग का पिता तथा अन्य नागों का सरदार था। इसकी एक मुहर नाग लच्छन के साथ लाहौर से प्राप्त हुई और फ्लीट ने उसका सम्पादन भी किया।

4. चन्द्रवर्मा - पूर्वी बंगाल में बाकुड़ा जिले के सुसनियाँ पर्वत से प्राप्त एक शिलालेख पर 'चन्द्रवर्मा' शब्द उत्कीर्ण है। इस आधार पर चन्द्रवर्मा को बाँकुड़ा प्रदेश में स्थित पुष्कण का राजा माना जाता है। डा. हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार पुपकरण मारवाड़ में स्थित था।

डा. जायसवाल के अनुसार - चन्द्रवर्मा पूर्वी पंजाब का राजा था। कपितय विद्वान उसे महरौली स्तम्भ का 'चन्द्र' मानते हैं। मत वैभिन्य के कारण चन्द्रवर्मा के विषय में किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता है।

5. गणपतिनाग - गणपतिनाग के नाम से ही पता चलता है कि यह कोई नागवंशीय नरेश था। यह सम्भवतः नागों की राजधानी पद्मावती में ई. 310-344 तक शासन करता था। इस राजा के सिक्के मारवाड़ तथा बेसनगर के समीप मिले हैं। डा. भण्डारकर का मत है कि यह राजा नागों की विदिशाखा था। इसका वर्णन विष्णु पुराण में मिलता है।

6. नागसेन - प्रयाग प्रशस्ति में नागों की सूची में पहले ही इसका उल्लेख हुआ है। हर्षचरित में भी इसका उल्लेख इस प्रकार हुआ है -

"नागाकुल जन्मनः सारिका श्रवित मन्त्रस्थ अशीत नागों नाससेनस्य पद्मावत्याम् ॥'

विद्वानों का मत है कि गणपतिनाग के समय नागों की दूसरी शाखा पर राज्य कर रहा है। रैप्सन महोदय भी प्रयाग प्रशस्ति में वर्णित और हर्षचरित के नाम को एक ही मानते हैं। परन्तु डा. जायसवाल नागसेन को मथुरा का नागवंशीय शासक बतलाते हैं।

7. अच्युत - अच्युत कौन था और कहां का राजा था इस विषय में पर्याप्त मतभेद है। अच्युत बरेली जिले में अहिछत्र नामक स्थान का शासक था। वहाँ से बहुत-सी ऐसी मुद्राएं मिली हैं जिन पर अच्युत शब्द पढ़ने को मिला है। डा. भण्डारकर ने उनकी बनावट के आधार पर पद्मावती की नाग मुद्राओं से समानता प्रकट की है।

8. नन्दि - यह भी सम्भवतः नागवंशीय नरेश था। पुराणों में शिशुनन्दि और नन्दिशसू को मध्य भारत का नागवंशीय नरेश बताया गया है। शिवनन्दि नामक एक राजा का वर्णन हुआ है। इब्रील महोदय नन्दि तथा शिवनन्दि की एकता को सिद्ध करते हैं। यह ध्यान देने का विषय है कि गुप्त राजाओं का राजकीय चिह्न गरुड़ था। गरुड़ को नागों का शत्रु समझा जाता है। संभवतः इसी कारण गुप्त शासकों ने गरुड़ को राजकीय चिह्न बनाया।

9. बलवर्मा - प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार आर्यावर्त के शासकों में अन्तिम शासक बलवर्मा था। कुछ विद्वान इसे कोट कुलज मानते हैं। यह सम्भवतः असम का राजा हो सकता है जो हर्ष के समकालीन आस्करवर्मन से नौपीढ़ी पूर्व का था। इसे स्वीकार करने में बड़ी कठिनाई है क्योंकि असम आर्यावर्त में सम्मिलित नहीं था, उसका वर्णन पृथक रूप से आया है। डा. जायसवाल ने अच्युत तथा नन्दि एक ही शासक के दो नाम बताये हैं अतः नन्दि को नागवंशीय शासक मानना ही उचित होगा।

आर्यावर्त विनय में इस बात का संकेत नहीं मिलता कि यहाँ के शासकों ने समुद्रगुप्त के विरुद्ध किसी प्रकार के संघ का निर्माण किया हो। आगरा, देहली, पंजाब आदि के कुछ भागों को छोड़कर उत्तरी भरत के सम्पूर्ण प्रदेश पर इस विजय से गुप्त सत्ता की स्थापना हो गयी।

आटविक राज्य - आर्यावर्त के द्वितीय युद्धं का वर्णन करने के पश्चात् हरिषेण ने वन्य प्रदेश के राजाओं का उल्लेख किया है।

डा. चौधरी के अनुसार आटविक राज्य आलवक (गाजीपुर) और उभाल (जबलपुर प्रदेश) में थे। इन आटविक राज्यों की स्थिति के सम्वत् में 199 गुप्त सम्वत् तथा 209 गुप्त सम्बन्ध के लेखों का सहारा लिया जाता है। इनके अनुसार हस्तिन डभाल तथा 18 अरबी राज्यों पर शासन कर रहा था। इस प्रकार यदि आटविक राज्यों को मध्य भारत में मान लिया जाय तो यह अनुमान स्वाभाविक प्रतीत होता है कि प्रथम आर्यावर्त युद्ध के पश्चात् दक्षिणी भारत की ओर अभियान करते समय समुद्र के बीच में आटविक राज्यों की जीता था परन्तु हरिषेण ने आटविक राज्यों की विजय का उल्लेख द्वितीय आर्यावर्त-युद्ध और पूर्वी भारत की विजय के बीच में किया है। इससे भी अनुमान लगाया जा सकता है कि आटविक राज्य. आर्यावर्त और पूर्वी सीमान्त राज्यों के बीच में स्थित थे।

समुद्रमुप्त की दक्षिणापथ विजय - प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त द्वारा दक्षिण के 12 राजाओं की विजय का वर्णन मिलता है। इन राजाओं को पराजित करने के पश्चात् बन्दी बना लिया जाता था परन्तु उन्हें मुक्त करके उनका राज्य लौटा दिया जाता था। यह समुद्रगुप्त की धर्म विजय की नीति कहलाती है। यह नीति समुद्रगुप्त की दूरदर्शिता एवं परिपक्व कूटनीति का प्रमाण है क्योंकि दूरस्थ प्रदेशों तक सत्ता बनाये रखने में आवागमन के साधनों के अभाव में कठिनाई होती। दक्षिण भारतीय विजय प्रयाग में पराजित शासकों की सूची निम्न प्रकार है

1. कोशल का महेन्द्र - यहाँ कोशल का अर्थ दक्षिण का कोशल से ही लगाना चाहिए। इसकी राजधानी श्रीपुर थी। इसके अन्तर्गत विलासपुर, रायपुर सम्भलपुर के जिले थे। इसका राजा महेन्द्र था। महेन्द्र के विषय में पूर्ण रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि इस राजा का किसी प्रकार का लेख आदि नहीं मिलता है।

2. महाकान्तार का व्याधराज - डॉ. राय चौधरी के अनुसार यह राज्य मध्य प्रदेश का वन्य प्रदेश था। इसकी स्थिति बैनगड़ा और प्राक् कोशल के बीच थी। इसका राजा व्याघ्रराज था। डॉ. जायसवाल महाकान्तार को वर्तमान कंकर एवं बस्तर प्रदेश मानते थे। डॉ. भण्डारकर का विचार है कि महाकान्तार : का व्याघ्रराज बुन्देलखण्ड के जाने और अजयगढ़ प्रदेशों पर राज्य करता था। श्री रामदास महाकान्तार को गंजाम और विशाखापट्टनम का झाड़ा खण्ड प्रदेश मानते हैं।

3. केरल का मन्तराज - कुछ विद्वान केरल को कुशल पढ़ते हैं। डॉ. वर्निट ने इसका समीकरण दक्षिण भारत के गंगा कोराड (गंजाम जिला) से किया है। ऐहोल अभिलेख में कोलैर को कुनाल कहा गया है। पवनदूत नामक ग्रंथ में केरलों को ययातिनगर का निवासी बताया गया है। यह ययातिनगर मध्य प्रदेश के सोनपुर जिले में था। कुछ विद्वान यही मज्तरात का राज्य मानते हैं।

4. विपटपुर का महेन्द्रगिरि - विपटपुर का समीकरण गोदावरी जिले में स्थित आधुनिक पिट्टापुर ही तत्कालीन विपटपुर धा यहाँ का राजा महेन्द्रगिरि था।

5. कोटूर का स्वामीदत्त - यह आधुनिक गंजाम जिले में कोटूर था। परन्तु कुछ विद्वान कोटूर की समता विजगापट्टम के कोटूरा से करते हैं। फ्लीट महोदय भी कोटूर की समता कोटूर कौलैसी से करते है, जो कोयम्बटूर जिले में है। यहाँ के शासक स्वामीदत्त के विषय में विशेष जानकारी नहीं मिलती है।

6. एरण्डपल्ल का दमन - डॉ. फ्लीट ने इसका समीकरण खानदेश जिले में स्थित एरण्डोल से किया है। टुब्रिया महोदय ने इसका विरोध करते हुए एरण्डपल्ल को गंजाम जिले में स्थित एरंडपलि नामक नगर माना है जिसे रामदास विशाखापत्तनम एंडीपल्लिया एल्लोर में स्थित एंडीपल्लि मानते हैं।

7. कांची का विष्णुगोप - इसका समीकरण आधुनिक मद्रास के कांजीवरम् के साथ किया गया है। यहाँ का राजा विष्णुगोप पल्लववंशीय था। डॉ. कृष्णस्वामी ने इसे संस्कृत तथा प्राकृत लेख वाला विष्णुगोप कहा है परन्तु यह मानना उपयुक्त नहीं है। कांची आधुनिक कांजीवरम ही है।

8. अवयुक्त का नीलराज - नीलराज अवमुक्त का शासक था परन्तु अभी तक पूर्ण सन्तोषजनक जानकारी नहीं मिलती। डॉ. आर. के. मुकर्जी के अनुसार अवयुक्त अवश्य ही एक छोटा सा राज्य होगा और जो कांची और वेणी के निकट स्थित होगा। डा. रायचौधरी के अनुसार अवयुक्त का तदात्म्य सन्तोषजनक ढंग से निश्चित नहीं किया जा सकता, किन्तु उसके राज्य नीलराज के नाम से नीलपलि का स्मरण हो आता है जो गोदावरी जिले में 'यनाम' के निकट बन्दरगाह था।

9. वेगी का हस्तिवर्मन - वैगयेक की समता आन्ध्र प्रदेश एलौरा तालुक के वर्तमान वेंगी (पेड़ वेंगी) नामक स्थान से की जाती है। कुछ विद्वानों के अनुसार इसका शासन हस्तिवर्मन एक शासनकाल वंशीय शासक था जिसका नाम नन्दिवर्मन द्वितीय पैड़ीवेंगी ताम्रपत्र में उल्लिखित है। यह ताम्रपत्र भी शासनकाल वंश का है। डा. रायचौधरी भी इसी मत को मानते है। डा. हुल्दुश ने वेंगी के हस्तिवर्मन को आनन्द वंश का हस्तिवर्मा स्वीकार किया है, परन्तु हस्तिवर्मन को गलती से कहीं-कहीं पल्लववंशीय भी कहा गया है।

10. पालवक का अग्रसेन - पहले कुछ विद्वान मालावार के पालघाट को पालक बताते थे, परन्तु आधुनिक विद्वान इससे सहमत नहीं हैं। यह गुण्टूर जिले में स्थित पलक्कड़ था, यह पल्लवों का एक प्रमुख राजकेन्द्र था। जे. बी. डुब्रिल महोदय पल्लक को कृष्णा नदी के दक्षिण की ओर स्थित राजधानी मानते हैं।

11. देवराष्ट्र का कुबेर - फ्लीट महोदय देवराष्ट्र को महाराष्ट्र मानते हैं, परन्तु अन्य विद्वान इसे एनमंचि कलिंग का एक जिला मानते हैं। देवराष्ट्र का शासक कुबेर था जिसे समुद्रगुप्त के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ा था।

12. कुस्थल पुर का धनन्जय - डॉ. वार्नेट ने कुस्थलपुर को उत्तरी अकीट में पोहूर के निकट कुट्टालूर माना है। स्मिथ महोदय ने कुस्थलपुर माना है जो द्वारिका का ही दूसरा नाम है। आयंगर महोदय के अनुसार कुस्थलपुर, कुस्थलपुर नदी के पास का क्षेत्र है।

पूर्व के प्रत्यन्त ( सीमावर्ती) राज्य

ये सीमा के प्रान्तीय राज्य थे। समुद्रगुप्त की विजयों से भयभीत होकर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। यहाँ के राजाओं ने बिना युद्ध के ही समुद्रगुप्त के अधीन होकर उसे कर देना था उसकी आज्ञाओं का पालन करना स्वीकार कर लिया। इन सीमा प्रान्तीय राजाओं में पूर्वी बंगाल के समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल तथा कर्तृपुर के राजा थे। इन सीमावर्ती राज्यों का वर्णन निम्नलिखित है-

1. समतट - यह बह्मपुत्र तथा गंगा नदी के डेल्टा का प्रदेश माना गया है। कोमिल्ला के निकट कर्मान्त इसकी राजधानी थी। डा. वी. सी. सेन के इसके विवरणों तथा जीवन कथाओं तथा ह्वेनसांग की यात्रा का वर्णन किया है। पड़ोसी देशों के साथ समतट की स्थिति इस प्रकार निश्चित की जा सकती है कि यह कामरूप (असम) के दक्षिण में कर्ण सुवर्ण मुर्शिदाबाद के दक्षिण पूर्व की ओर तथा ताम्रलिपि मिदनापुर की ओर स्थित था।

2. डवाक - आधुनिक ढाका अथवा चटगांव और टिपरा के पहाड़ी प्रदेश के क्षेत्र को डवाक कहते थे। वी. यन. स्मिथ इसको बोगरा, दिनाजपुर और राजशाही का पूर्ववर्ती मानते हैं। डा. बरुजा इसे आसाम तथा कोपिली घाटी मानते हैं। फ्लीट महोदय भी इसका समीकरण वर्तमान बंगलादेश की राजधानी ढाका से करते हैं। अन्य इतिहासकारों का मत है कि समतट तथा कामरूप के बीच दवाक् का उल्लेख प्राप्त होता है, जिससे यह आभासित होता है कि ढाका तथा चटगांव के मध्यस्थ भाग पर दवाक् स्थित था।

3. कामरूपं - डा. त्रिपाठी ने इसका समीकरण आसाम से किया है तथा कामरूप का आधुनिक नाम आसाम बताया है। यहाँ पर वर्मन वंश का राज्य रहा था जो सम्भवतः हर्षवर्धन के समकालीन भास्करवर्मन के पूर्वज थे। प्राचीनकाल में प्राग्जोतिष राज्य का कामरूप एक भाग हो, ऐसा अनुमान लगाया जाता है।

4. नेपाल - नेपाल आज भी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के उत्तर में स्थित एक पृथक देश है। सम्भक्तः प्राचीनकाल में यह इतना विस्तृत राज्य न हो जितना अब है। उस समय नेपाल का शासक जयदेव प्रथम था परन्तु प्रयाग प्रशस्ति में इसका नाम नहीं आया है। इस काल में सम्भवतः नेपाल में गुप्त सम्वत् प्रयोग में लाया जाने लगा था।

5. कर्तृपुर - पूर्वी प्रत्यन्त राज्य में समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करने वाला अन्तिम राज्य कर्तृपुर था। फ्लीट महोदय ने कहा है कि जालन्धर जिले में स्थित वर्तमान कर्त्तापुर ही कर्तृपुर था। बी.ए. स्मिथ महोदय इसे कुमायूं गढ़वाल और कांगड़ा का प्रदेश मानते हैं, जो कर्तृपुर में सम्मिलित थे। कुछ विद्वानों के अनुसार मुल्तान और सोहनी के मध्य में स्थित खरोर नामक स्थान ही कर्तृपुर था।

पश्चिमी राज्य

जिन जातियों के गणराज्यों ने समुद्रगुप्त के प्रति स्वयं आत्मसमर्पण कर दिया उनके नाम इस प्रकार हैं-

1. मालव - मालव ग्रीक लेखकों के मल्लोही जाति के समान हैं। प्रथम शती ईसवी के अन्त तक वे पंजाब से राजपुताना की ओर निष्क्रमण कर चुके थे और अन्त में अवन्ति में बसकर उसको उन्होंने अपना मालवा नाम दिया। इन्होंने सिकन्दर का मुकाबला भी किया था।

2. अर्जुनायन - ये संभवत अलवर रियासत और जयपुर के पूर्वी भाग में बसे थे। डा. राय चौधरी के अनुसार अर्जुनायनों का सम्बन्ध पाण्डव अर्जुन से था। वृहत्सहिंता के अनुसार ये लोग भारत के उत्तर में निवास करते थे। इनके समय के सिक्के मथुरा से प्राप्त हुए हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार यह उत्तर प्रदेश और पंजाब के मध्य में रहते थे। डा. वी. ए. स्मिथ ने इन्हें आगरा तथा मथुरा राज्य का ही माना है।

"They may be assigned with brobability to the region lying west of Agra and Mathura Equivalent roughly speaking to the Bhartpur and Alwar State.'

अलवर और भरतपुर के राज्यों से मिली इनकी मुद्राओं में "अर्जुनायन नानांजया" लिया है।

3. यौधेय - महाभारत में एक स्थान पर युधिष्ठिर के पुत्र का नाम यौधेय था। पाणिनि ने भी इस यौधेय जाति का वर्णन किया है। उन्हेंने इसे आयुधजीवी संघ में सम्मिलित किया था, जिसका तात्पर्य इस जाति का प्रधान कार्य युद्ध करना था। हरिवंश पुराण में इनको उष्टीनगर से सम्बन्धित बतलाया गया है। रुद्रवर्मन के अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि इस जाति का सम्बन्ध भरतपुर राज्य से था। सहारनपुर से मुल्तान तक इनके बहुत से सिक्के मिले हैं। डॉ. भण्डारकर के अनुसार यह जाति मेवाड़, कोटा और मध्य भारत के समीपवर्ती प्रदेश में रहती थी। ये उत्तरी राजपुताना के निवासी थे। इनका नाम "जोहियावार" में अब भी ध्वनित है और यह प्रदेश बहावलपुर रियासत की सीमा पर आज भी स्थित है।

4. मद्रक - ये यौधेयों के उत्तर में बसे थे और इनकी राजधानी शाकल अथवा स्यालकोट थी। पाणिनि की अष्टाध्यायी में इस जाति का वर्णन आयुधजीवियों के साथ किया गया है। झेलम नदी तथा रावी नदी के बीच का प्रदेश मद्र के नाम से विख्यात था जिससे पता चलता है कि मद्रकों का राज्य पश्चिमोत्तर सीमा की ओर था। समुद्रगुप्त के समय में सम्भवतः ये जाति यौधेयों के उत्तर की ओर रहती थी।

5. आमीर - इनका प्रदेश ( अहीरवाद) मध्य भारत में पार्वती और वेतवा नदियों के बीच था। डॉ. राय चौधरी सिन्धु घाटी के दक्षिणी भाग एवं पश्चिमी राजपुताना को इनका निवास स्थान बताते हैं। डॉ. स्मिथ ने झाँसी और भिलसा के बीच अहीरवाड़ बताया है।

6. प्रार्जुन - इनकी राजधानी मध्य प्रदेश में नरसिंहपुर अथवा नरसिंहगढ़ थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इनका उल्लेख मिलता है। डॉ. वी. ए. स्मिथ तथा भण्डारकर के मतों से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि ये लोग मध्य भारत के नरसिंहपुर जिले में निवास करते थे।

7. सनकानीक - ये भिलसा के पास निवास करते थे। उदयगिरि के लेख में चन्द्रगुप्त द्वितीय के एक सनकानीक सामन्त का उल्लेख हुआ है। काक सनकानीकों के पड़ोसी थे। इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि यह गणराज्य गुप्तों के अधीन था।

8. काक - सांची को काकनाद कहते थे, डा. वी. ए. स्मिथ ने इन्हें काकानाद से सम्बन्धित माना है। डा. जायसवाल के अनुसार काक जाति भिलसा से 20 मील दूर नामक स्थान पर निवास करती थी। इस जाति का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है।

9. खर्परिक - डा. भण्डाकर के मतानुसार बतिहगढ़ लेख में उल्लिखित खर्पर जाति ही खर्परिक है। सम्भवतः इनके अधिकार में मध्य प्रदेश का दमोह जिला था। यच. सी. चौधरी मालवा में खर्परिकों का निवास मानते है। समुद्रगुप्त के विवरणों से (प्रयाग प्रशस्ति ) से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त के सामने कुछ विदेशी शासकों ने आत्मसमर्पण किया था, इसके द्वारा समुद्रगुप्त के लिये किये जाने वाले सत्कार को तीन भागों में बांट सकते हैं-

1. आत्म-निवेदन
2. कन्योपायन दान
3. गरुड़ मद अंक एवं विषय-शक्ति शासन याचना

प्रथम श्रेणी में वे शासक आते थे, जो स्वयं दरबार में होते थे, दूसरी श्रेणी में वे राजा आते थे जिन्होंने अपनी कन्याएं दान में देकर समुद्रगुप्त को प्रसन्न किया था तथा तीसरी श्रेणी में वे राजा आते थे जिन्होंने गुप्त शासकों के आधिपत्य को स्वीकार कर उनके नियमानुसार शासन करने के लिए आधिपत्य स्वीकार किया तथा राज्य कार्य के लिए गुप्तों की मोहर जिस पर गढ़ का चिह्न बना था। प्राप्त किया तथा इस श्रेणी में कुषाण, शक और देश के राजाओं को अतिश्योक्ति प्रतीत होती है।

प्रयाग प्रशस्ति में इन गणराज्यों के नामों के अन्त में आदि शब्द का प्रयोग इस ओर संकेत करता है कि इन नौ गणराज्यों के अतिरिक्त समुद्रगुप्त ने कुछ अन्य छोटी-छोटी जातियों के गणराज्य भी अपने अधीन किये होंगे। गणतन्त्रीय राजाओं के विषय में डा. अल्तेकर ने लिखा है-

"It is usually held that he careers the Yaudhaya, the Madra the Arjunayana and the Malava repulic mentioned in the Samudra Gupta's Allahabad insoription came to an end owing to the imperialistic ambition and expansion of the Guptas.'

सीमान्त प्रदेशों के प्रति नीति

पूर्वी और पश्चिमी सीमाओं पर स्थित राज्यों और समुद्रगुप्त के बीच जो सम्बन्ध था उस पर प्रयाग प्रशस्ति में अग्रलिखित कथन मिलता है - 'सर्वकर दानाज्ञाकरण प्रणामागमन।

1. सर्वकर दान - ये राज्य समुद्रगुप्त को सभी प्रकार के कर देते थे।
2. आज्ञाकरण - ये राज्य समुद्रगुप्त की आज्ञाओं का पालन करते थे।
3. प्रणामागमन - ये राज्य व्यक्तिगत रूप से आकर समुद्रगुप्त के सामने अभिवादन करते थे।

समुद्रगुप्त को इन राज्यों के साथ युद्ध नहीं करना पड़ा था। उसकी दिग्विजय से भयभीत होकर उन्होंने स्वयं ही उसकी आधीनता स्वीकार कर ली थी, परन्तु ये राज्य समुद्रगुप्त के राज्य के भीतर न थे।

विदेशी राज्य

प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त एवं विदेशी राज्यों से उनके सम्बन्ध का भी उल्लेख प्राप्त होता था। प्रशस्ति'के अनुवाद के अनुसार "जिसको देवपुत्रशाही, शाहानुशाही, शक, मुरण्ड, सैहल आदि सारे द्वीपों के निवासी आत्मनिवेदन किये हुए थे, अपनी कन्याएं भेंट में देते थे। अपनी विषय शक्ति के शासन के लिए गरुड़ की राजमुद्रा से अंकित फरमान मांगते थे। इस प्रकार की सेवाओं से जिसने अपने बाहुबल के प्रताप से सारी पृथ्वी को बांध दिया था, जिसका पृथ्वी पर कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं था।"

प्रयाग प्रशस्ति के उपर्युक्त उल्लेख में जिन विदेशी राजाओं की चर्चा है, इसके विषय में विद्वानों में मतभेद नहीं है। कुछ विद्वानों के अनुसार इसमें पाँच विदेशी राजाओं का उल्लेख है-

1. देवपुत्रशाही
2. शाहानुशाही
3. शक
4. मरुण्ड तथा
5. सैहल

परन्तु कुछ विद्वान इन्हें चार ही राजा मानते हैं। चार विदेशी राज्य निम्नलिखित हैं-

1. देवपुत्रशाही शाहानुशाही - यह एक पदवी है जो विदेशी राजा के लिए प्रयुक्त की गयी है। यह शासक प्रत्यक्ष रूप से कुषाण नरेश का वंशज था। उसके राज्य में उत्तर पश्चिम का प्रदेश था। चक्रवर्ती कुंषाण नरेशों ने 'देवपुत्र' तथा शाहानुशाही (राजा का राजा) आदि उपाधियाँ धारण की थीं। अतः डा. स्मिथ, एलन एवं फ्लीट महोदय का मत है कि मध्य पंजाब, पश्चिमी पंजाब और काबुल की घाटी के विदेशी राजाओं को समुद्रगुप्त ने नतमस्तक किया।

2. शक - प्राचीनकाल में पश्चिमी तथा मध्य भारत में शक जाति का आधिपत्य था। इस समय इनका राज्य उत्तर पश्चिमी तथा पश्चिमी भारत में विद्यमान रहा होगा। प्रयाग प्रशस्ति में वर्णित शकों को एलन महोदय ने उत्तर भारत के शक माना है, कुछ विद्वानों के अनुसार पश्चिमी भारत के शकों को चन्द्रगुप्त ने पददलित किया था। यदि समुद्रगुप्त ने इनका दमन किया है तो ये वर्णित शक उत्तरी भारत के रहे होंगे।

3. मुरुण्ड - स्टेनकोनो का मत है कि मुरुण्ड कोई पृथक जाति नहीं थी। शक भाषा में मुरुण्ड का अर्थ स्वामी होता है, अतः मुरुण्ड से शक जाति के स्वामी या शासक का बोध होता है। यह एक उपाधि है, जिसको सौराष्ट्र और उज्जैन के क्षत्रपों ने धारण किया था। एलन और लेवी का विचार है कि मुरुण्ड जाति का शासन तीसरी शताब्दी में रहा। 'अभिधान चिन्तामणि' के उल्लेख में उन्हें अफगानिस्तान का निवासी बताया गया है तथा पुराणों में यवन और तुषार जाति के साथ मुरुण्ड शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि मुरुण्ड जाति पश्चिमोत्तर प्रान्त में निवास करती थी।

4. सैहल - लंका निवासी सैहलों को ही सैहल कहते आये हैं, सैहल नरेश मेघवर्ण समुद्रगुप्त का समकालीन था। इसने समुद्रगुप्त की अधीनता को स्वीकार कर लिया था और उसे अनेक उपहार भेंट में दिये थे। मेघवर्ण बौद्ध मत का अनुयायी था तथा उसने समुद्रगुप्त की आज्ञा से बोधगया के निकट सिंहली यात्रियों के लिए एक मठ का निर्माण कराया था। इस घटना का वर्णन एक चीनी वृत्तान्त से प्राप्त होता है।

अन्य द्वीपवासी - प्रथम अभिलेख से ज्ञात होता है कि सिंहल के अतिरिक्त अन्य द्वीप के निवासी भी समुद्रगुप्त से सम्बन्ध रखते थे। प्रयाग प्रशस्ति में सिंहल द्वीप के पश्चात् 'सर्वद्वीप वासिडि' शब्द से प्रकट होता है कि कुछ अन्य द्वीप भी इसकी प्रभुता स्वीकार करते थे। पूर्वी एशिया के द्वीपों में रहने वाले भारतीयों के साथ भी समुद्रगुप्त का सम्बन्ध था। हरिषेण ने इनके नाम नहीं दिए हैं, जावानीज के "तांत्रिक मन्दक" से विदित होता है कि जावा का शासक ऐश्वर्यपाल अपने को समुद्रगुप्त का वंशज मानता था। फाह्यान ने जावा के उपनिवेशों का उल्लेख किया है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- प्राचीन भारतीय इतिहास को समझने हेतु उपयोगी स्रोतों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- प्राचीन भारत के इतिहास को जानने में विदेशी यात्रियों / लेखकों के विवरण की क्या भूमिका है? स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- प्राचीन भारत के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की सुस्पष्ट जानकारी दीजिये।
  4. प्रश्न- प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में आप क्या जानते हैं?
  5. प्रश्न- भास की कृति "स्वप्नवासवदत्ता" पर एक लेख लिखिए।
  6. प्रश्न- 'फाह्यान' पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
  7. प्रश्न- दारा प्रथम तथा उसके तीन महत्वपूर्ण अभिलेख के विषय में बताइए।
  8. प्रश्न- आपके विषय का पूरा नाम क्या है? आपके इस प्रश्नपत्र का क्या नाम है?
  9. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - प्राचीन इतिहास अध्ययन के स्रोत
  10. उत्तरमाला
  11. प्रश्न- बिम्बिसार के समय से नन्द वंश के काल तक मगध की शक्ति के विकास का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  12. प्रश्न- नन्द कौन थे महापद्मनन्द के जीवन तथा उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
  13. प्रश्न- छठी सदी ईसा पूर्व में गणराज्यों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  14. प्रश्न- छठी शताब्दी ई. पू. में महाजनपदीय एवं गणराज्यों की शासन प्रणाली के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
  15. प्रश्न- बिम्बिसार की राज्यनीति का वर्णन कीजिए तथा परिचय दीजिए।
  16. प्रश्न- उदयिन के जीवन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  17. प्रश्न- नन्द साम्राज्य की विशालता का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- धननंद और कौटिल्य के सम्बन्ध का उल्लेख कीजिए।
  19. प्रश्न- धननंद के विषय में आप क्या जानते हैं?
  20. प्रश्न- मगध की भौगोलिक सीमाओं को स्पष्ट कीजिए।
  21. प्रश्न- गणराज्य किसे कहते हैं?
  22. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - महाजनपद एवं गणतन्त्र का विकास
  23. उत्तरमाला
  24. प्रश्न- मौर्य कौन थे? इस वंश के इतिहास जानने के स्रोतों का उल्लेख कीजिए तथा महत्व पर प्रकाश डालिए।
  25. प्रश्न- चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में आप क्या जानते हैं? उसकी उपलब्धियों और शासन व्यवस्था पर निबन्ध लिखिए|
  26. प्रश्न- सम्राट बिन्दुसार का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  27. प्रश्न- कौटिल्य और मेगस्थनीज के विषय में आप क्या जानते हैं?
  28. प्रश्न- मौर्यकाल में सम्राटों के साम्राज्य विस्तार की सीमाओं को स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- सम्राट के धम्म के विशिष्ट तत्वों का निरूपण कीजिए।
  30. प्रश्न- भारतीय इतिहास में अशोक एक महान सम्राट कहलाता है। यह कथन कहाँ तक सत्य है? प्रकाश डालिए।
  31. प्रश्न- मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- मौर्य वंश के पतन के लिए अशोक कहाँ तक उत्तरदायी था?
  33. प्रश्न- चन्द्रगुप्त मौर्य के बचपन का वर्णन कीजिए।
  34. प्रश्न- अशोक ने धर्म प्रचार के क्या उपाय किये थे? स्पष्ट कीजिए।
  35. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - मौर्य साम्राज्य
  36. उत्तरमाला
  37. प्रश्न- शुंग कौन थे? पुष्यमित्र का शासन प्रबन्ध लिखिये।
  38. प्रश्न- कण्व या कण्वायन वंश को स्पष्ट कीजिए।
  39. प्रश्न- पुष्यमित्र शुंग की धार्मिक नीति की विवेचना कीजिए।
  40. प्रश्न- पतंजलि कौन थे?
  41. प्रश्न- शुंग काल की साहित्यिक एवं कलात्मक उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
  42. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - शुंग तथा कण्व वंश
  43. उत्तरमाला
  44. प्रश्न- सातवाहन युगीन दक्कन पर प्रकाश डालिए।
  45. प्रश्न- आन्ध्र-सातवाहन कौन थे? गौतमी पुत्र शातकर्णी के राज्य की घटनाओं का उल्लेख कीजिए।
  46. प्रश्न- शक सातवाहन संघर्ष के विषय में बताइए।
  47. प्रश्न- जूनागढ़ अभिलेख के माध्यम से रुद्रदामन के जीवन तथा व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।
  48. प्रश्न- शकों के विषय में आप क्या जानते हैं?
  49. प्रश्न- नहपान कौन था?
  50. प्रश्न- शक शासक रुद्रदामन के विषय में बताइए।
  51. प्रश्न- मिहिरभोज के विषय में बताइए।
  52. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - सातवाहन वंश
  53. उत्तरमाला
  54. प्रश्न- कलिंग नरेश खारवेल के इतिहास पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- कलिंगराज खारवेल की उपलब्धियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  56. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - कलिंग नरेश खारवेल
  57. उत्तरमाला
  58. प्रश्न- हिन्द-यवन शक्ति के उत्थान एवं पतन का निरूपण कीजिए।
  59. प्रश्न- मिनेण्डर कौन था? उसकी विजयों तथा उपलब्धियों पर चर्चा कीजिए।
  60. प्रश्न- एक विजेता के रूप में डेमेट्रियस की प्रमुख उपलब्धियों की विवेचना कीजिए।
  61. प्रश्न- हिन्द पहलवों के बारे में आप क्या जानते है? बताइए।
  62. प्रश्न- कुषाणों के भारत में शासन पर एक निबन्ध लिखिए।
  63. प्रश्न- कनिष्क के उत्तराधिकारियों का परिचय देते हुए यह बताइए कि कुषाण वंश के पतन के क्या कारण थे?
  64. प्रश्न- हिन्द-यवन स्वर्ण सिक्के पर प्रकाश डालिए।
  65. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - भारत में विदेशी आक्रमण
  66. उत्तरमाला
  67. प्रश्न- गुप्तों की उत्पत्ति के विषय में आप क्या जानते हैं? विस्तृत विवेचन कीजिए।
  68. प्रश्न- काचगुप्त कौन थे? स्पष्ट कीजिए।
  69. प्रश्न- प्रयाग प्रशस्ति के आधार पर समुद्रगुप्त की विजयों का उल्लेख कीजिए।
  70. प्रश्न- चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की उपलब्धियों के बारे में विस्तार से लिखिए।
  71. प्रश्न- गुप्त शासन प्रणाली पर एक विस्तृत लेख लिखिए।
  72. प्रश्न- गुप्तकाल की साहित्यिक एवं कलात्मक उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
  73. प्रश्न- गुप्तों के पतन का विस्तार से वर्णन कीजिए।
  74. प्रश्न- गुप्तों के काल को प्राचीन भारत का 'स्वर्ण युग' क्यों कहते हैं? विवेचना कीजिए।
  75. प्रश्न- रामगुप्त की ऐतिहासिकता पर विचार व्यक्त कीजिए।
  76. प्रश्न- गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के विषय में बताइए।
  77. प्रश्न- आर्यभट्ट कौन था? वर्णन कीजिए।
  78. प्रश्न- स्कन्दगुप्त की उपलब्धियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  79. प्रश्न- राजा के रूप में स्कन्दगुप्त के महत्व की विवेचना कीजिए।
  80. प्रश्न- कुमारगुप्त पर संक्षेप में टिप्पणी लिखिए।
  81. प्रश्न- कुमारगुप्त प्रथम की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- गुप्तकालीन भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- कालिदास पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  84. प्रश्न- विशाखदत्त कौन था? वर्णन कीजिए।
  85. प्रश्न- स्कन्दगुप्त कौन था?
  86. प्रश्न- जूनागढ़ अभिलेख से किस राजा के विषय में जानकारी मिलती है? उसके विषय में आप सूक्ष्म में बताइए।
  87. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - गुप्त वंश
  88. उत्तरमाला
  89. प्रश्न- दक्षिण के वाकाटकों के उत्कर्ष का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  90. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - वाकाटक वंश
  91. उत्तरमाला
  92. प्रश्न- हूण कौन थे? तोरमाण के जीवन तथा उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
  93. प्रश्न- हूण आक्रमण के भारत पर क्या प्रभाव पड़े? स्पष्ट कीजिए।
  94. प्रश्न- गुप्त साम्राज्य पर हूणों के आक्रमण का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  95. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - हूण आक्रमण
  96. उत्तरमाला
  97. प्रश्न- हर्ष के समकालीन गौड़ नरेश शशांक के विषय में आप क्या जानते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  98. प्रश्न- हर्ष का समकालीन शासक शशांक के साथ क्या सम्बन्ध था? मूल्यांकन कीजिए।
  99. प्रश्न- हर्ष की सामरिक उपलब्धियों के परिप्रेक्ष्य में उसका मूल्यांकन कीजिए।
  100. प्रश्न- सम्राट के रूप में हर्ष का मूल्यांकन कीजिए।
  101. प्रश्न- हर्षवर्धन की सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन कीजिये?
  102. प्रश्न- हर्ष का मूल्यांकन पर टिप्पणी कीजिये।
  103. प्रश्न- हर्ष का धर्म पर टिप्पणी कीजिये।
  104. प्रश्न- पुलकेशिन द्वितीय पर टिप्पणी कीजिये।
  105. प्रश्न- ह्वेनसांग कौन था?
  106. प्रश्न- प्रभाकर वर्धन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  107. प्रश्न- गौड़ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  108. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - वर्धन वंश
  109. उत्तरमाला
  110. प्रश्न- मौखरी वंश की उत्पत्ति के विषय में बताते हुए इस वंश के प्रमुख शासकों का उल्लेख कीजिए।
  111. प्रश्न- मौखरी कौन थे? मौखरी राजाओं के जीवन तथा उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
  112. प्रश्न- मौखरी वंश का इतिहास जानने के साधनों का वर्णन कीजिए।
  113. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - मौखरी वंश
  114. उत्तरमाला
  115. प्रष्न- परवर्ती गुप्त शासकों का राजनैतिक इतिहास बताइये।
  116. प्रश्न- परवर्ती गुप्त शासकों के मौखरी शासकों से किस प्रकार के सम्बन्ध थे? स्पष्ट कीजिए।
  117. प्रश्न- परवर्ती गुप्तों के इतिहास पर टिप्पणी लिखिए।
  118. प्रश्न- परवर्ती गुप्त शासक नरसिंहगुप्त 'बालादित्य' के विषय में बताइये।
  119. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - परवर्ती गुप्त शासक
  120. उत्तरमाला

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